top of page

आज के भारत में भगत सिंह की अनुगूंज



भगत सिंह और उनके साथी सुखदेव व राजगुरु को लाहौर जेल में फांसी दिए 94 साल हो चुके हैं. उन्हें तय समय से एक दिन पहले ही फांसी दे दी गई थी. तब से उन्हें उर्दू में शहीदों के सरताज, 'शहीद-ए-आज़म' के नाम से जाना जाता है. उर्दू में "इंकलाब जिंदाबाद" का मशहूर नारा, जिसे भगत सिंह ने अमर कर दिया, आज भी पूरे भारत में बदलाव और न्याय की सामूहिक पुकार के रूप में गूंजता है. जब नौ दशक बाद आज भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश के भाजपा मुख्यमंत्री उसी उर्दू भाषा को हिकारत भरी नजर से देख कट्टरता की भाषा बोलते हैं, तो हमें साफ समझ में आता है कि भगत सिंह आज भी इतने प्रासंगिक और समकालीन क्यों लगते हैं.

भगत सिंह सिर्फ़ जोश से भरे हुए क्रांतिकारी युवा नहीं थे, बल्कि वे औपनिवेशिक भारत के सबसे परिपक्व और दूरदर्शी विचारकों में से एक थे. उनका और उनके साथियों का बलिदान सिर्फ़ औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त होने की जोशीली चाह तक सीमित नहीं था, बल्कि वे एक समाजवादी भारत का सपना लेकर चले थे. भारत का स्वतंत्रता संग्राम केवल विदेशी हुकूमत से आज़ादी की लड़ाई नहीं था, बल्कि यह एक महान राष्ट्रीय जागरण भी था. इसने गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने और आज़ाद होने के लिए करोड़ों भारतीयों को एकजुट किया, साथ ही आधुनिक भारत की परिकल्पना को भी आकार दिया. इन दोनों ही मायनों में भगत सिंह एक अद्वितीय स्वतंत्रता सेनानी थे. भगत सिंह और उनके साथियों ने भारत की राजनीतिक परिकल्पना और वैचारिक प्रतिबद्धता को वह दिशा दी जिसे आगे चल कर बाबासाहब अम्बेडकर के नेतृत्व में बने भारत के संविधान में सभी के लिए समग्र न्याय, स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारा के साथ एक सार्वभौम समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में ठोस स्वरूप मिला.

हम भगत सिंह को उनके दूरदर्शी नज़रिए के लिए भी याद करते हैं, जिसमें उन्होंने चेताया था कि आज़ादी सिर्फ़ शासकों को बदलने की लड़ाई नहीं है—ऐसा न हो कि अंग्रेजों की जगह उनके देसी उत्तराधिकारी आ जाएं. उनके लिए "इंक़लाब ज़िंदाबाद" का नारा तभी पूरा होता था जब उसके साथ "साम्राज्यवाद मुर्दाबाद" की आवाज़ भी बुलंद हो. साफ़ तौर पर, वे न केवल ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की बेड़ियों से आज़ादी की तात्कालिक लड़ाई के लिए भारत को तैयार कर रहे थे, बल्कि वे एक ऐसे संघर्ष की बुनियाद भी रख रहे थे, जहां साम्राज्यवादी वर्चस्व बना रह सकता था और भारत के भावी शासक भी समझौता कर सकते थे या घुटने टेक सकते थे. ऐसा करके, वे ठीक वही खास कम्युनिस्ट भूमिका निभा रहे थे, जिसे मार्क्स और एंगेल्स ने 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' में रेखांकित किया था: "कम्युनिस्ट तात्कालिक लक्ष्यों को हासिल करने और मज़दूर वर्ग के तत्कालीन हितों की रक्षा के लिए लड़ते हैं; लेकिन मौजूदा आंदोलन में, वे उस आंदोलन के भविष्य का भी प्रतिनिधित्व करते हैं और उसकी हिफाजत भी करते हैं."

आज भगत सिंह को याद करने का वक्त है. जब ट्रंप प्रशासन भारत का हर तरह से अपमान कर रहा है और उसके हितों को चोट पहुंचा रहा है, और मोदी सरकार इसे जायज ठहरा रही है, तब भगत सिंह को याद करो. जब नेतन्याहू मासूम फ़िलिस्तीनी बच्चों और उनके माता-पिता का अंतहीन जनसंहार कर रहा है, ट्रंप हर आज़ादी, न्याय और शांति की आवाज़ को कुचल रहा है, और मोदी सरकार न केवल चुप है बल्कि इस जनसंहारी अभियान को हर तरह का समर्थन भी दे रही है, तब भगत सिंह को याद करो. जब अडानी भारत के प्राकृतिक संसाधनों और बुनियादी ढांचे को लूट रहा है, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसके भ्रष्टाचार और अपराध उजागर हो रहे हैं, और मोदी इसे महज़ ‘निजी मामला’ बताकर टाल देते हैं, तब भगत सिंह को याद करो. और जब मोहन भागवत अयोध्या के राम मंदिर को भारत की असली आजादी का पल बताते हैं, तब भी भगत सिंह को याद करो.

जो साहस, दृढ़ संकल्प और वैचारिक स्पष्टता भगत सिंह और उनके साथियों ने एक सदी पहले स्वतंत्रता संग्राम में दी, वह हमारी अमर धरोहर है. उसी ने हमें 1947 में आजादी दिलाई. वही हमें आज भी ताकत देगी - साम्राज्यवादी वर्चस्व, फासीवादी हमले, कॉरपोरेट लूट और सांप्रदायिक नफरत से मुक्ति की हमारी मौजूदा लड़ाई में.

इंकलाब जिंदाबाद,
साम्राज्यवाद मुर्दाबाद !

-दीपंकर भट्टाचार्य

Comments


Commenting has been turned off.
bottom of page